राजस्थान शिक्षक संघ (आरपीएससी) की बैठक सोमवार को पुनाराम बांगड़ा की अध्यक्षता में आयोजित की गई। बैठक में कार्यकारिणि का गठन करते हुए केशाराम लोमरोड़ तंवरा को अध्यक्ष, पृथ्वीराज भादू उपाध्यक्ष, महावीर रोज सचिव, प्रभूराम शर्मा सह सचिव, मुनीर खां संगठन मंत्री, महेन्द्रसिंह भाटी संगठन मंत्री, हनुमान लोमरोड़ कोषाध्यक्ष, रामकिशोर बेड़ा प्रचार मंत्री, रामकुंवार मेघवाल सांस्कृतिक मंत्री, कानसिंह खेलकूद मंत्री, ताराचन्द ताण्डी संयोजक, भेरूराम गुर्जर सह संयोजक नियुक्त किया गया। बैठक में शिक्षकों ने मेडिक्लेम कार्ड जारी करने, सीपीएफ डायरी संधारण व सर्विस बुक पूर्ण रूप से तैयार करने सहित शिक्षकों की विभिन्न समस्याओं संबधी चर्चा की गई।
जायल - एक परिचय
हरित राजस्थान हो अपना सपना
Friday, May 27, 2011
Thursday, December 30, 2010
Thursday, September 30, 2010
Saturday, September 11, 2010
पोस्ट ऑफिस इन जायल
Barnel B।, Chhajoli B।, Dugastau B.O, Dugoli B.O, Gudha Jodhan B.O,
Gugaryali B.O, Jael S.O, Jochina B.ओ, Kathoti B.O,
Khinyala B.O, Rajod B.O, Rotoo B.O, Silanwad B.O,
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ग्राम पंचायत इन जायल तहसील
१ आकोड़ा 2। आंवलियासर 3। अड़वड़ 4।बरनेल 5। bhanwala
६। बोड़वा 7।बुगरड़ा 8। छापड़ा 9। छाजोली 10। डेह 11। धारणा 12। ढ़ेहरी
13। डिडिया कलां 14। दोतिणा १५।दुगस्ताऊ 16। दुगोली 17। फरड़ोद
18। गेलोली १९।गौराऊ 20। गुगरियाली 21। जालनियासर 22। जायल 23। झाड़ेली
24। जोचीणा 25। कमेड़िया 26। कठौती 27। खाटू कलां 28। खेराट 29। खिंयाला
30। लूणसरा 31। मांगलोद 32। पीण्डिया 33। राजोद ३४। ratanga ३५ रोहिणा
36।रोल37। रूपाथल38।रोटू 39सांडिला ४० सोमणा41। सोनेली42। सुरपालिया
43। टांगला44।तंवरा 45।तरनाऊ
Saturday, June 19, 2010
ब्राण्डेड व जैनरिक में अन्तर
ब्राण्डेड व जैनरिक में अन्तरजैनरिक दवाईयां गुणवत्ता में किसी भी प्रकार के ब्राण्डेड दवाईयों से कम नहीं है तथा ये उतनी ही असर कारक है, जितनी की ब्राण्डेड दवाईयों। जैनरिक दवाईयों को बाजार में उतारने का लाईसेंस मिलने से पहले गुणवत्ता मानकों की सभी सख्त प्रक्रियाओं से गुजरना होता है।
किसी भी दवा के जीवन काल में चार अवस्थायें होती है:- 1. शोध 2. विकास 3. पेटेंट फेज 4. जैनरिक फेज
किसी भी नई, दवा का निर्माण शोध कार्यशाला में किया जाता है। इसके बाद उस दवा के निर्माण के अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए पेटेन्ट प्रार्थना-पत्र दिया जाता है। जब कोई कम्पनी उस दवा का प्रयोग शुरू करती है तो विकास की अवधि प्रारम्भ हो जाती है। पेटेंट फेज में कम्पनी उसको कम से कम एक देश में विक्रय करना प्रारम्भ कर देती है। इस प्रक्रिया में चिकित्सक, मरीज, अस्पताल व बीमा कम्पनियां शामिल हो जाती है। पेटेन्ट की अवधि समाप्त होने पर जैनरिक कम्पनियां दवा को कम मूल्य पर बेचना प्रारम्भ कर देती हैं।
पेटेंट के बगैर दवाओं का शोध और विकास कम हो जायेंगे तथा जैनरिक के बिना आम आदमी की दवा तक पंहुच में कमी आयेगी। इस प्रकार दोनों चीजों में यानी कि नई दवाओं के शोध व विकास तथा जो दवायें पहले से बाजार में उपलब्ध है, आम व्यक्ति की पंहुच में रहे, में सामन्जस्य बिठाकर चलना होगा। प्रत्येक शोध नई दवा के विकास के उद्वेश्य से व लाखों लोगों के स्वास्थ्य में सुधार की दृष्टि से होना चाहिये न कि उनकी जेब से पैसे निकलवाने के लिए। यह बात सामने आ चुकी है कि शोध पर किसी कम्पनी के कुल टर्न ओवर का मात्र 2 से 20 प्रतिशत ही खर्च किया जाता है जबकि शोध के नाम पर बहुत बड़ी धनराशि दवा की कीमत में शामिल कर ली जाती है। ऐसा नहीं होना चाहिए। पेटेन्ट समाप्त होने के बाद जैनरिक दवा उत्पादन मूल्य में थोड़ा मुनाफा जोड़कर मरीज को उपलब्ध होनी चाहिये।
ऐसा भी देखने में आया है कि शोध के नाम पर पुरानी उपलब्ध दवा में साधारण सा बदलाव कर पेटेन्ट प्राप्त कर लिया जाता है तथा चिकित्सकों को प्रभावित कर यह नई दवा लिखवाकर दवा कम्पनियां भारी मुनाफा कमा लेती हैं।
उदाहरण के लिए यदि चिकित्सक ने ब्लड कैंसर के किसी मरीज के लिए ‘ग्लाईकेव‘ ब्राण्ड की दवा लिखी है तो महीने भर के कोर्स की कीमत 1,14,400 रूपये होगी, जबकि उसी दवा के दूसरे ब्राण्ड ‘वीनेट‘ की महीने भर के कोर्स की कीमत अपेक्षाकृत काफी कम 11,400 रूपये होगी। सिप्ला इस दवा के समकक्ष जैनरिक दवा ‘इमीटिब‘ 8,000 रूपये में और ग्लेनमार्क 5,720 रूपये में मुहैया करवाती है।
किसी भी दवा के जीवन काल में चार अवस्थायें होती है:- 1. शोध 2. विकास 3. पेटेंट फेज 4. जैनरिक फेज
किसी भी नई, दवा का निर्माण शोध कार्यशाला में किया जाता है। इसके बाद उस दवा के निर्माण के अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए पेटेन्ट प्रार्थना-पत्र दिया जाता है। जब कोई कम्पनी उस दवा का प्रयोग शुरू करती है तो विकास की अवधि प्रारम्भ हो जाती है। पेटेंट फेज में कम्पनी उसको कम से कम एक देश में विक्रय करना प्रारम्भ कर देती है। इस प्रक्रिया में चिकित्सक, मरीज, अस्पताल व बीमा कम्पनियां शामिल हो जाती है। पेटेन्ट की अवधि समाप्त होने पर जैनरिक कम्पनियां दवा को कम मूल्य पर बेचना प्रारम्भ कर देती हैं।
पेटेंट के बगैर दवाओं का शोध और विकास कम हो जायेंगे तथा जैनरिक के बिना आम आदमी की दवा तक पंहुच में कमी आयेगी। इस प्रकार दोनों चीजों में यानी कि नई दवाओं के शोध व विकास तथा जो दवायें पहले से बाजार में उपलब्ध है, आम व्यक्ति की पंहुच में रहे, में सामन्जस्य बिठाकर चलना होगा। प्रत्येक शोध नई दवा के विकास के उद्वेश्य से व लाखों लोगों के स्वास्थ्य में सुधार की दृष्टि से होना चाहिये न कि उनकी जेब से पैसे निकलवाने के लिए। यह बात सामने आ चुकी है कि शोध पर किसी कम्पनी के कुल टर्न ओवर का मात्र 2 से 20 प्रतिशत ही खर्च किया जाता है जबकि शोध के नाम पर बहुत बड़ी धनराशि दवा की कीमत में शामिल कर ली जाती है। ऐसा नहीं होना चाहिए। पेटेन्ट समाप्त होने के बाद जैनरिक दवा उत्पादन मूल्य में थोड़ा मुनाफा जोड़कर मरीज को उपलब्ध होनी चाहिये।
ऐसा भी देखने में आया है कि शोध के नाम पर पुरानी उपलब्ध दवा में साधारण सा बदलाव कर पेटेन्ट प्राप्त कर लिया जाता है तथा चिकित्सकों को प्रभावित कर यह नई दवा लिखवाकर दवा कम्पनियां भारी मुनाफा कमा लेती हैं।
उदाहरण के लिए यदि चिकित्सक ने ब्लड कैंसर के किसी मरीज के लिए ‘ग्लाईकेव‘ ब्राण्ड की दवा लिखी है तो महीने भर के कोर्स की कीमत 1,14,400 रूपये होगी, जबकि उसी दवा के दूसरे ब्राण्ड ‘वीनेट‘ की महीने भर के कोर्स की कीमत अपेक्षाकृत काफी कम 11,400 रूपये होगी। सिप्ला इस दवा के समकक्ष जैनरिक दवा ‘इमीटिब‘ 8,000 रूपये में और ग्लेनमार्क 5,720 रूपये में मुहैया करवाती है।
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